Poetry

ढूंढ रही अपनी पहचान

January 10, 2020

प्रभा जी ने इस कविता के ज़रिये इंसान के वजूद पर सवाल किया है। आसान भाषा और साधारण उदाहरणों का उचित उपयोग करके इस कविता को रचा है।ढूंढ रही अपनी पहचान किसी व्यक्ति-विशेष पर आधारित नहीं है, बल्कि यह हम सबके लिए एक संदेश है, एक सीख है कि इंसान को स्वयं से समय समय पर यह चंद मूल प्रश्न करते रहने चाहिए।

पहले क्या थे?

अब क्या हैं?

फिर क्या होंगे,

कुछ पता नहीं |

पर ये नाते-रिश्ते

क्या —

यों ही बने हैं?

हम क्या हैं?

कौन हैं?

कहाँ से आये हैं?

कहाँ जाएँगे?

समुद्र तट की

रेत के सागर में

पैरों के निशान

एक ही लहर से

मिट जाते हैं

हम कहाँ उन्हें खोज पाते हैं

क्या हम उन पैरों के निशान

जैसे हैं, जो

एक ही पल में खो जाते हैं?

Prabha Kanoria

Prabha Kanoria

Prabha Kanoria is a homemaker, artist, great-grandmother and poet. She uses simple words to convey deep emotions. In 1991 she won the Maharashtra Rajya Hindi Sahitya Akademi Kavya Vidha Sant Namdev Puruskar for her poetry collection Dhoondh Rahi Apni Pehchan.

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